श्री गांधी की प्रेरणा के अधीन

अध्याय – 5

श्री गांधी की प्रेरणा के अधीन

यह अध्याय महात्मा गांधी की भूमिका और उनके भारत में हाशिये पर रखे गए समुदाय, अछूतों के साथ इंटरेक्शन्स पर एक गहराई से विश्लेषण प्रदान करता है। यहाँ अध्याय की सामग्री और थीम्स के आधार पर एक सारांश, मुख्य बिंदु, और निष्कर्ष दिया गया है:

सारांश:

यह अध्याय महात्मा गांधी द्वारा अछूतों के उत्थान के प्रयासों और रणनीतियों का कठोरता से परीक्षण करता है, जिन्हें उन्होंने हरिजन्स, यानी “भगवान के बच्चे” के रूप में संबोधित किया। डॉ. आंबेडकर गांधीजी की विधियों, उनके मृत्यु तक के उपवास, और अछूतों के अधिकारों और प्रतिनिधित्व को लेकर ब्रिटिश और भारतीय राजनीतिक समुदाय के साथ उनके समझौतों की जांच करते हैं।

मुख्य बिंदु:

  1. गांधीजी का दर्शन: गांधीजी ने वर्ण व्यवस्था, एक पारंपरिक हिन्दू सामाजिक हियरार्की, में विश्वास किया लेकिन जाति व्यवस्था के वंशानुगत व्यावसायिक विभाजन और अछूतों के विरोध में थे। उन्होंने अहिंसक साधनों और जाति हिंदुओं की आत्म-शुद्धि के माध्यम से अछूतों के नैतिक और सामाजिक उत्थान की वकालत की।
  2. मृत्यु तक उपवास: अध्याय गांधीजी के 1932 में अछूतों के लिए पृथक मतदानाधिकारों के विरुद्ध उनके मृत्यु तक के उपवास का विवरण देता है, जो ब्रिटिश द्वारा प्रस्तावित था। गांधीजी ने पृथक मतदानाधिकारों को विभाजक माना, डरते हुए कि वे हिन्दू समाज को विघटित कर देंगे। उपवास ने पूना पैक्ट की ओर अग्रसर किया, जिसने अछूतों के लिए सामान्य मतदानाधिकारों में आरक्षित सीटें प्रदान कीं बजाय अलग सीटों के।
  3. आंबेडकर द्वारा आलोचना: डॉ. आंबेडकर गांधीजी की कार्रवाइयों को पितृसत्तात्मक और अछूतों के वास्तविक मुक्ति के लिए अपर्याप्त मानते हैं। वे तर्क देते हैं कि गांधीजी का दृष्टिकोण हिन्दू सामाजिक व्यवस्था को बचाने के बारे में अधिक था बजाय अछूतों को अछूतता की बेड़ियों से मुक्त कराने के।
  4. अछूतों पर प्रभाव: अध्याय गांधीजी के प्रयासों के वास्तविक सामाजिक-आर्थिक हालतों पर अछूतों के सीमित प्रभाव की चर्चा करता है। गांधीजी के विशाल प्रभाव के बावजूद, अछूतता गहराई से निहित रही, अछूतों की शिक्षा, रोजगार, और सामाजिक गरिमा तक पहुँच में मामूली सुधार के साथ।

निष्कर्ष:

डॉ. आंबेडकर निष्कर्ष निकालते हैं कि जबकि गांधीजी के भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान नकारा नहीं जा सकता, उनका अछूत प्रश्न के प्रति दृष्टिकोण अपर्याप्त और अत्यधिक सरल था। वास्तविक समाधान क्रांतिकारी सामाजिक सुधार और जाति व्यवस्था के विघटन में निहित था, बजाय सांकेतिक इशारों और जाति हिंदुओं के नैतिक अपीलों के। आंबेडकर अछूतों के सामाजिक और आर्थिक मुक्ति सुनिश्चित करने के एकमात्र तरीके के रूप में उनके प्रत्यक्ष राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सशक्तिकरण की वकालत करते हैं। यह अध्याय भारत के दो महान नेताओं के बीच की जटिल गतिशीलता और देश के सबसे स्थायी सामाजिक मुद्दों में से एक के प्रति उनके भिन्न दृष्टिकोणों की एक महत्वपूर्ण जांच प्रदान करता है।