अध्याय 3: हिन्दू धार्मिक ग्रंथों की समीक्षा
अवलोकन:
इस अध्याय में, डॉ. बी.आर. बाबासाहेब आंबेडकर हिन्दू धार्मिक ग्रंथों की उन शिक्षाओं की गहन समीक्षा करते हैं जो जाति प्रणाली को संस्थापित और बढ़ावा देती हैं। वे तर्क देते हैं कि इन ग्रंथों की पवित्रता और अचूकता की धारणा ही जाति के उन्मूलन में मुख्य बाधा है। बाबासाहेब आंबेडकर इन ग्रंथों के दिव्य अधिकार को चुनौती देते हैं, यह कहते हुए कि इनके द्वारा जाति भेदभाव का समर्थन नैतिक और न्यायिक सिद्धांतों के खिलाफ है।
मुख्य बिंदु:
- शास्त्रों पर प्रश्नचिन्ह:बाबासाहेब आंबेडकर शास्त्रों की प्रामाणिकता और नैतिक अधिकार पर सवाल उठाते हैं, जो अक्सर जाति प्रणाली को उचित ठहराने के लिए उद्धृत किए जाते हैं।
- संतों की भूमिका: वे हिन्दू परंपरा में संतों की भूमिका की समीक्षा करते हैं, यह दर्शाते हुए कि कई संतों ने जाति प्रणाली को सीधे तौर पर चुनौती नहीं दी, बल्कि इसके भीतर रहकर इसे अनजाने में समर्थन दिया।
- ग्रंथों की व्याख्या: वे धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या पर चर्चा करते हैं, यह कहते हुए कि उच्च जातियों द्वारा चयनित व्याख्या ने जाति भेदभाव को बढ़ावा दिया है।
- धार्मिक समर्थन की आलोचना:बाबासाहेब आंबेडकर जाति प्रणाली के धार्मिक समर्थन की आलोचना करते हैं, यह बताते हुए कि यह दिव्य समर्थन ही इसे बदलने की कोशिशों के प्रति प्रतिरोधी बनाता है।
- धार्मिक सुधार की आवश्यकता: वे धार्मिक सुधार के लिए एक मामला पेश करते हैं, सुझाव देते हैं कि हिन्दू धर्म को आधुनिक मूल्यों के अनुरूप फिर से व्याख्यायित किया जाना चाहिए।
- तर्कसंगतता की अपील:बाबासाहेब आंबेडकर तर्क और नैतिकता पर आधारित धर्म की अपील करते हैं, अंध विश्वास के बजाय धार्मिक ग्रंथों के मौलिक आलोचनात्मक मूल्यांकन की वकालत करते हैं।
महत्व:
यह अध्याय जाति प्रणाली के उन्मूलन के लिए बाबासाहेब आंबेडकर के दृष्टिकोण को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। धार्मिक ग्रंथों की उनकी आलोचना सिर्फ एक वैचारिक अभ्यास नहीं है, बल्कि सामाजिक सुधार और समानता की ओर एक कदम है।